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प्र॒त्न॒वज्ज॑नया॒ गिर॑: शृणु॒धी ज॑रि॒तुर्हव॑म् । मदे॑मदे ववक्षिथा सु॒कृत्व॑ने ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pratnavaj janayā giraḥ śṛṇudhī jaritur havam | made-made vavakṣithā sukṛtvane ||

पद पाठ

प्र॒त्न॒ऽवत् । ज॒न॒य॒ । गिरः॑ । शृ॒णु॒धि । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । मदे॑ऽमदे । व॒व॒क्षि॒थ॒ । सु॒ऽकृत्व॑ने ॥ ८.१३.७

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:7 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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शिव शंकर शर्मा

इससे ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! तू (प्रत्नवत्) पूर्वकालवत् इस समय में भी (गिरः) विविधवाणियों को (जनय) उत्पन्न कर। जैसे पूर्वकाल में मनुष्य पशु और पक्षी प्रभृति प्राणियों में तूने विविध भाषाएँ दीं, वैसे अब भी नानाविध भाषाएँ उत्पन्न कर, जिनसे सुख हो और (जरितुः+हवम्) गुणग्राही जनों का स्तुतिपाठ (शृणुधी) सुन। (मदेऽमदे) उत्सव-उत्सव पर (सुकृत्वने) शुभ कर्मवाले के लिये (ववक्षिथ) अपेक्षित फल दे ॥७॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर ही ने मनुष्यों में विस्पष्ट वाणी स्थापित की। वही सर्व कर्मों का फलदाता है, अतः हे मनुष्यों ! उसी को पूजो ॥७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (गिरः) वाणियों को (प्रत्नवत्) प्रथम के समान (जनया) उत्पन्न करें (जरितुः) स्तोता के (हवम्, शृणुधि) स्तोत्र को सुनें (सुकृत्वने) आप सुकर्मी के लिये (मदेमदे) प्रत्येक आह्लादक यज्ञ में (ववक्षिथ) इष्ट पदार्थों को धारण करते हैं ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! आप स्तोता की स्तुतिरूप वेदवाणियों को सुनें अर्थात् उसको शुभ फलों की प्राप्ति करावें, जिससे वह उत्साहसम्पन्न होकर सदा यज्ञादि सुकर्मों में प्रवृत्त रहे। आप सुकर्मी के लिये सदैव इष्ट पदार्थों को प्राप्त कराते हैं, अतएव उचित है कि सब पुरुष सुकर्मों में प्रवृत्त रहें, ताकि उनकी मनोकामना पूर्ण हो ॥७॥
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शिव शंकर शर्मा

ईश्वरप्रार्थनां करोति ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! प्रत्नवत्=प्राचीनकालवत्। इदानीमपि। त्वं गिरः=वाणीः। प्राणिषु जनय=उत्पादय। यथा त्वं पुरा मनुष्येषु पशुषु पक्षिषु एवं सर्वेषु प्राणिषु विचित्रा नानाविद्या वाचोऽजनयः। तथेदानीमपि आनन्ददात्रीर्वाचो जनय। अपि च। जरितुः=गुणविदो हवमाह्वानं स्तवम्। शृणुधी=शृणु। हे इन्द्र ! त्वम्। सुकृत्वने=सुकर्मणो पुरुषाय। मदेऽमदे=उत्सवे उत्सवे। ववक्षिथ=अपेक्षितं फलं देहि ॥७॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (गिरः) वाणीः (प्रत्नवत्) पुरा इव (जनया) प्रादुर्भावय (जरितुः) स्तोतुः (हवम्) स्तोत्रम् (शृणुधि) शृणु (सुकृत्वने) सुकर्मणे (मदेमदे) प्रतियज्ञे (ववक्षिथ) इष्टपदार्थान् वहसि ॥७॥